Tuesday 14 August 2012

Aashray

द्रढ आश्रय से ही पुष्टिमार्ग में प्रभु प्राप्ति है, यहां किसी ज्ञान या कर्म से प्रभु प्राप्त नहीं होते अपितु प्रभु जिसका वरण करते हैं उसी जीव को प्राप्त होते हैं, और वरण का आधार है जीव का प्रभु के प्रति द्रढ आश्रय. शरण आश्रय का ही दूसरा नाम है, अत: पुष्टिमार्ग को शरणमार्ग भी कहते हैं. श्रीमद् भागवत में प्रभु ने आज्ञा की है कि “ मैं किसी साधन से प्राप्य नहीं हूं सिर्फ दिनोंदिन बढने वाली भक्ति से ही...
मैं प्राप्य हूं, आज जब प्रभु प्राप्ति के सभी मार्ग प्राय: समाप्त हो गये हैं, तब केवल शरणागति का मार्ग ही शेष रह गया है, श्री वल्लभ भी हमें यही उपदेश दे रहे हैं, अत: चाहे लौकिक कार्य हों या अलौकिक सभी में प्रभु की ही शरण भावना करनी चाहिये, चाहे कितने भी दु:ख हम पर आ पडें या कितना भी सुख हमें मिल जाये, सभी में सिर्फ प्रभु की शरण ही हमें पार लगा सकती है, प्रभु ही जगत के कर्ता धर्ता हैं, हम तो उनके सेवक = दास हैं, अत: हमें अपनी कृति का अहंकार नहीं होना चाहिये, अपने परिवार के पालन पोषण का अहंकार भी यदि हमारे अंदर आ जाता है, तो ये भी भगवद् अपराध है, और इससे भी मुक्ति का मार्ग सिर्फ प्रभु शरण ही है. सारे संसार में सिर्फ प्रभु ही हमारे सच्चे सगे हैं, अन्य तो सभी स्वार्थवश हमसे जुडते हैं, और स्वार्थ सिद्ध होते ही बदल जाते हैं, चाहे वे दूसरे हों या हमारे परिवार जन हों. श्री वल्लभ आज्ञा करते हैं कि प्रभु का आश्रय ही इन सब से हमें छुडाता है. हमारे मन को लौकिक से हटा कर यदि अलौकिक में जोडना हो तो प्रभु का अनन्याश्रय ही एकमात्र रास्ता है, इसी से सब कुछ सिद्ध होगा

अहंता- ममता
हमारे जीवन में चिंता या कष्ट का मूल कारण क्या है ? आखिर हम दु:खी क्यों रहते हैं ? इसके केवल दो कारण हैं, एक तो यह कि हर समय हम यही सोचते हैं “कि जो भी कुछ हो रहा है, वह मैं ही कर रहा हूं “ मैं ही कर्ता हूं, और दूसरा कारण यह “कि सभी वस्तुएं मेरी हैं “ (वैसे भी यह ब्रह्मसंबंध की भावना के सर्वथा विपरीत है, जहां हम सब कुछ प्रभु को समर्पित कर चुके हैं ) इसी का नाम अहंता और ममता है, यदि हमार...
े अंदर सांसारिक वस्तुओं के लिये अहंता और ममता (मैं और मेरा ) की भावना न हो तो हम दु:खी भी नहीं होंगे, यही दो ऐसे नश्तर हैं जो आमरणांत हमें चुभते रहते हैं, और हमें कभी भी सुखी नहीं होने देते, इसीलिये श्री वल्लभ भार पूर्वक आज्ञा करते हैं कि “ यह मैं हूं और यह मेरा है “ ऐसी वृत्ति न रख कर “ यह सभी कुछ प्रभु कर रहे हैं और सब कुछ प्रभु का ही है “ ऐसे विचारना चाहिये, तो ही हम सुखी रह सकेंगे |

भगवद् गुणगान
भगवद् गुणगान मनुष्य दो हेतु से करता है, एक तो भय से और दूसरा प्रेम से. जो भय से करता है उसके जीवन में कोई भी भय आते ही वह अष्टाक्षर रटना शुरु कर देता है, एवं भय के जाते ही जप बंद. परंतु जिसे अष्टाक्षर (प्रभु) से सच्चा प्रेम हो गया है, वह उस प्रेम के वश हो कर अष्टाक्षर जपता ही रहता है, उसके लिये सुख या दु:ख कोइ मायने नहीं रखता, उसके हृदय में प्रभु के प्रति प्रेम हमेशा रहता है इसीलिये उसका भगवद् नाम जप भी निरंतर रहता है.

3 comments:

  1. सरकार... कोटि कोटि दंडवत प्रणाम...

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  2. સરકાર... કોટી કોટી દંડવત પ્રણામ.. આપ ની કૃપાથી ભગવદ સ્મરણ રહેશે.

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  3. प.भ.अभय भाई ,शुभाशिष:, नियमित सत्संग से भगवद स्मरण संभव है, इसलिए जीवन में नियमित सत्संग का नियम लीजिये .

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