Wednesday, 15 August 2012

Pushtimarg Lakshnani 8-14

|| श्री पुष्टिमार्ग लक्षणानि ||

यत्र स्वतंत्रता भक्तेराविर्भावानपेक्षणात् ||
सर्वानुभवरूपत्वं पुष्टिमार्ग:स कथ्यते ||८||

जिस मार्ग में प्रभु प्रकट होकर रसदान करें ऐसी भी अपेक्षा भक्त द्वारा नहीं रखी जाती,एवं भगवद् गुणगान द्वारा स्वतंत्र भक्ति की जाती है वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है. विवरण:- भक्ति दो प्रकार की हैं, संयोगजन्य एवं विप्रयोगजन्य,संयोग भक्ति में प्रभु की भक्त के सन्मुख उपस्थिति आवश्यक है,उसमें प्रभु एवं भक्त
दोनों परस्पर बंध जाते हैं,जब कि विप्रयोग भक्ति में प्रभु भक्त के सन्मुख उपस्थित रहें ऐसा आवश्यक नहीं है,इसीलिये इसे स्वतंत्र भक्ति भी कहा गया है,संयोग भक्ति में जो लीला हो रही है उसी का अनुभव होता है,परंतु विप्रयोग भक्ति में तो प्रभु कृपा से सभी लीलाओं का अनुभव होता है,ऐसी विप्रयोग भक्ति जिस मार्ग में है,वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है ||8||

लोकवेदभयाभावो यत्र भावातिरेकत:||
सर्वबाधकतास्फूर्ति​:पुष्टिमार्ग:स कथ्यते ||९||

जिस मार्ग में प्रभु के प्रति जीव का भाव (प्रेम) इतनी उच्च कोटि (व्यसन दशा) पर पहूंच जाता है कि फिर उसे लौकिक और वैदिक की जरा भी परवाह नहीं रहती इतना ही नहीं बल्कि उसके लिये भगवत्संबंधरहित वस्तु मात्र दु:ख जनक हो जाती है़,ऐसा उच्च कोटि का भगवद्भाव जिस मार्ग में है वह शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है ||९||

सम्बंध:साधनं यत्र फलं सम्बंध एव हि |
सोपि कृष्णेच्छया जात: पुष्टिमार्ग:स कथ्यते ||१०||

जिस मार्ग में प्रभु से सम्बंध होना साधन रूप भी है एवं फल रूप भी.साधनरूप = ब्रह्मसम्बंध एवं फलरूप = प्रभु की लीला का साक्षात्कार.इन साधन एवं फल की प्राप्ति में भी प्रभु की कृपा ही एकमात्र कारण है न कि जीव का प्रयत्न या पुरुषार्थ.ऐसा प्रभु कृपा का माहात्म्य जिस मार्ग में है,वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है. ||१०||

तत्संबधिषु तद्भावस्तद्भिन्नेषु विरोधिता ||
उदासीनेषु समता पुष्टिमार्ग:स कथ्यते ||११||

जिस मार्ग में प्रभु के जो भक्त हैं उनसे प्रेम एवं जो प्रभु के विरोधी हैं उनसे विरोध,एवं जो प्रभु के प्रति उदासीनता रखते हैं उनसे उदासीनता ऐसी समता का व्यवहार होता हो,अर्थात जहां लौकिक व्यवहार में भी प्रभु की ही प्रधानता रखी जाती हो वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है. ||११||

विध्यमानस्य देहादेर्न स्वीयत्वेन भावनं ||
परोक्षेपि तदर्थित्वं पुष्टिमार्ग:स कथ्यते ||१२||

जिस मार्ग में देह,इंद्रिय,इत्यादि में ममता न रखते हुए सिर्फ प्रभु सेवा के उद्देश्य से ही उनका पोषण किया जाता है एवं विप्रयोग में भी देह इत्यादि की सम्भाल इसलिये रखी जाती है कि वह प्रभु दर्शन में सहायक होगी.जिस मार्ग में जीव की आसक्ति सिर्फ प्रभु में ही केन्द्रित होती है,और उसके जीवन का उद्देश्य सिर्फ प्रभु सेवा ही होता है वह मार्ग ही शुद्ध पुष्टिभक्तिमार्ग है ||१२||

भजने यत्र सेव्यस्य नोपकारकृति:क्वचित ||
पोषणं भावमात्रस्य पुष्टिमार्ग:स कथ्यते ||१३||

जिस मार्ग में “मैं प्रभु के लिये इतना कर रहा हूं“ऐसा अहंकार नहीं रखा जाता बल्कि प्रभु ही कृपा करके मेरे भाव का पोषण कर रहे हैं ऐसी भावना ही सतत रहती है | मर्यादा मार्ग में तो प्रभु से भी अपेक्षा रखी जाती है, और पुष्टिमार्ग में तो यही भावना रखी जाती है कि “प्रभु कृपा करके मेरी सेवा का स्वीकार कर रहे हैं“ऐसी दीनता की भावना जहां हमेशा जीव के हृदय में रहती है, वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है ||१३||

भजनस्य अपवादो न क्रियते फलदानत: ||
प्रभुणा यत्र तद्भावात् पुष्टिमार्ग:स कथ्यते ||१४||

जिस मार्ग में प्रभु के द्वारा दिये गये फल के कारण भक्त द्वारा प्रभु के भजन = सेवा का अपवाद नहीं किया जाता,अर्थात प्रभु की सेवा भक्त जिस प्रकार से एवं जिस भाव से कर रहा है वैसे ही स्थिर भाव से करता रहता है,एवं प्रभु के द्वारा दिये गये कैसे भी फल से उस के भाव में फर्क नहीं आता,वह उस फल को प्रभु की कृपा ही समझ कर स्वीकार करता है,जिस मार्ग में ऐसा शुद्ध एवं दृढ भाव भक्त के हृदय में रहता है वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है ||१४||

2 comments:

  1. Dandvat Pranam Jai Gokulke Chandki!  It is aapshri's aashirwad that we are able to appreciate these sundar translations and enjoy the writings and the messages they convey.  We pray that our mind continues to be graced by Pushtimargiya literature and aapshri continues to shower compassion upon us.  Please accept our obeisances at Thy lotus feet.  Kiran

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  2. Blessings Kiran,thanks for reading blog and than giving your opinion on that,Pushtimargiya litrature is so varied that its impossible to translate that in one life time,but through this blog it's my humble beginning.

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