II श्री पुष्टिमार्ग लक्षणानि II
सर्वसाधनराहित्यम फलाप्तौ यत्र साधनम्,फलं वा साधनं यत्र पुष्टिमार्ग: स: कथ्यते II१II
जिस मार्ग में लौकिक तथा अलौकिक सभी साधनों का अभाव पूर्ण आनंदरूप श्री कृष्ण की प्राप्ति में साधन रूप है,अर्थात सिर्फ दीनता ही जहाँ साधन है,एवं जहाँ उसी दीनता के माध्यम से फल रूप प्रभु स्वयं साधन बन जाते हैं,अर्थात स्वयं कृपा कर जीव के ह्रदय में पधारते हैं,जहाँ फल ही साधन है वही शुद्ध पुष्टिभक्ति मार्ग है .
अनुग्रहेणैव सिद्धि:लौकिकी यत्र
वैदिकी,न यत्नादन्यथा विघ्न: पुष्टिमार्ग: स कथ्यते II2II
जिस मार्ग में लौकिक तथा वैदिक सिद्धि प्रभु कृपा से ही प्राप्त होती हैं,प्रभु का आश्रय छोड स्वयं के पुरुषार्थ से उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करने पर सिर्फ विघ्न ही प्राप्त होते हैं,ऐसा प्रभु का अनन्य आश्रय जिस मार्ग में कहा गया है वही शुद्ध पुष्टिभक्ति मार्ग है,पुष्टिमार्ग में सब कुछ भगवत्कृपाधीन है. II 2 II
जिस मार्ग में लौकिक तथा वैदिक सिद्धि प्रभु कृपा से ही प्राप्त होती हैं,प्रभु का आश्रय छोड स्वयं के पुरुषार्थ से उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करने पर सिर्फ विघ्न ही प्राप्त होते हैं,ऐसा प्रभु का अनन्य आश्रय जिस मार्ग में कहा गया है वही शुद्ध पुष्टिभक्ति मार्ग है,पुष्टिमार्ग में सब कुछ भगवत्कृपाधीन है. II 2 II
यत्रांगीकरणे नैव योग्यतादिविचारणं,अविलम्ब:प्रभु
कृत:पुष्टिमार्ग:स
कथ्यते ||जिस मार्ग में प्रभु जब जीव का अंगीकार करते हैं तब जीव की योग्यता का विचार नहीं करते सिर्फ स्वयं की इच्छा से ही जीव का अविलम्ब अंगीकार करते हैं,जहां सिर्फ प्रभु कृपा ही जीव के अंगीकार में कारण है,वही शुद्ध पुष्टिभक्तिमार्ग है ||3||
स्वरूपमात्रपरता तात्पर्यज्ञानपूर्वकं,धर्मनिष्ठ
ा
यत्र नैव पुष्टिमार्ग: स कथ्यतेजिस मार्ग में शास्त्रों में कहे हुए सभी धर्मों का तात्पर्य सिर्फ प्रभु में ही है,अर्थात सभी धर्म प्रभु में ही रहे हुए हैं,ऐसा जानकर एवं प्रभु प्राप्ति में बाधा बन ने वाले सभी धर्मों का त्याग कर केवल प्रभु में ही निष्ठा रखी जाती है,वही शुद्ध पुष्टिभक्तिमार्ग है ||4||
यत्र प्रभुकृतौ नैव गुणदोषविचारणं,तत्कृतौ
उत्तमत्वज्ञा:पुष्टिमार्ग:स कथ्यते
जिस मार्ग में प्रभु के गुण एवं दोषों का विचार नहीं किया जाता ,(क्योंकि प्रेम यदि गुण-दोषों पर आधारित है तो वह भी गुण के साथ बढेगा और दोष देख कर घटेगा )परंतु प्रभु की सभी लीलायें उत्तम ही हैं,यही विचार हमेशा मन में रहता है,वही मार्ग शुद्ध्पुष्टिभक्ति मार्ग है,इसीलिये जीव को यह विचार हमेशा मन में रखना चाहिये कि सुख एवं दु:ख भी भगवत्कृत हैं,अत: उन्हें आनंद से स्वीकारना चाहिये ||5||
जिस मार्ग में प्रभु के गुण एवं दोषों का विचार नहीं किया जाता ,(क्योंकि प्रेम यदि गुण-दोषों पर आधारित है तो वह भी गुण के साथ बढेगा और दोष देख कर घटेगा )परंतु प्रभु की सभी लीलायें उत्तम ही हैं,यही विचार हमेशा मन में रहता है,वही मार्ग शुद्ध्पुष्टिभक्ति मार्ग है,इसीलिये जीव को यह विचार हमेशा मन में रखना चाहिये कि सुख एवं दु:ख भी भगवत्कृत हैं,अत: उन्हें आनंद से स्वीकारना चाहिये ||5||
न लोकवेदसापेक्ष्यं सर्वथा यत्र
वर्तते,सापेक्षता स्वामिसुखे पुष्टिमार्ग:स कथ्यते.
जिस मार्ग में सेवक द्वारा स्वयं के स्वामी प्रभु के सुख को ही प्रधानता दी जाती है,तथा लोक एवं वेद से प्राप्त होने वाले किसी भी तरह के फल की अपेक्षा नहीं रखी जाती,जहां सिर्फ "तत्सुख" की ही प्रधानता है,वही शुद्ध पुष्टिभक्तिमार्ग है ||6||
जिस मार्ग में सेवक द्वारा स्वयं के स्वामी प्रभु के सुख को ही प्रधानता दी जाती है,तथा लोक एवं वेद से प्राप्त होने वाले किसी भी तरह के फल की अपेक्षा नहीं रखी जाती,जहां सिर्फ "तत्सुख" की ही प्रधानता है,वही शुद्ध पुष्टिभक्तिमार्ग है ||6||
वरणे द्रश्यते यत्र हेतुर्नाणुरपि
स्वत: |
वरणं च निजेच्छात: पुष्टिमार्ग:स कथ्यते ||
जिस मार्ग में प्रभु जीव के किसी भी साधन का विचार किये बिना सिर्फ उसकी नि:साधनता देख कर अपनी इच्छा से उसका अंगीकार करते हैं (क्योंकि साधन संपन्नता से अभिमान आता है ) वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है ||7||
वरणं च निजेच्छात: पुष्टिमार्ग:स कथ्यते ||
जिस मार्ग में प्रभु जीव के किसी भी साधन का विचार किये बिना सिर्फ उसकी नि:साधनता देख कर अपनी इच्छा से उसका अंगीकार करते हैं (क्योंकि साधन संपन्नता से अभिमान आता है ) वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है ||7||
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