यत्र वा सुखसम्बंधो वियोगे संगमादपि ||
सर्वलीलानुभवत:पुष्टिमार्ग:स कथ्यते ||१५||
जिस मार्ग में प्रभु की वियोग दशा में भी उनकी सभी लीलाओं का अनुभव जीव को होने से, संयोग से भी अधिक आनंद की अनुभूति होती है,क्योंकि संयोग में तो प्रभु की उसी लीला के दर्शन होते हैं जो संयोग के समय हो रही है,परंतु वियोग में तो जीव प्रभु की जिस लीला का स्मरण करता है,उसी लीला के दर्शन उसे होते हैं,जिस मार्ग में वियोग में भी आनंद है,वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है ||१५||
फले च साधने चैव सर्वत्र विपरीतता ||
फलं भाव:साधनं पुष्टिमार्ग:स कथ्यते ||१६||
जिस मार्ग में प्रभु की लीला का दर्शन फल रूप है,परंतु हृदय में उस लीला के दर्शन का भाव होना साधन दशा है,इसलिये साधन एवं फल में विपरीतता दिखाई देती है,परंतु हृदय में ऐसा भाव होने में प्रभु कृपा ही साधन है,एवं लीला का दर्शन रूपी फल भी प्रभु कृपा से ही प्राप्त होता है,अर्थात जिस मार्ग में विपरीतता में भी एकता है,अर्थात फल और साधन विपरीत होते हुए भी एक ही हैं,ऐसा विलक्षण मार्ग पुष्टिभक्तिमार्ग है.||१६||
पश्चात्ताप:सदा यत्र तत्सम्बंधिकृतावपि ||
दैन्योद्बोधाय सततं पुष्टिमार्ग:स कथ्यते ||१७||
जिस मार्ग में प्रभु की सभी लीलाओं का अनुभव होते हुए भी अपनी दीनता को जागृत करने के लिये भक्त सदैव ( प्रभु की अन्य लीलाओं से वंचित रहने के कारण ) पश्चाताप किया करता है, गोपियां भी प्रभु की माखन चोरी इत्यादि लीलाओं के दर्शन करते हुए भी गौ चारण लीला के दर्शन से वंचित रहने के कारण पश्चाताप करती थीं.दीनता से जीव में नि:साधनता आती है,और नि:साधन जीव पर प्रभु अवश्य ही कृपा करते हैं. ऐसी दीनता की प्रमुखता जिस मार्ग में है, वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है. ||१७||
आविर्भाव न सापेक्ष्यं दैन्यं यत्र हि साधनं ||
फलं वियोगजं दैन्यं,पुष्टिमार्ग:स कथ्यते ||१८||
जिस मार्ग में भगवद्दर्शन से पहले भक्त को होने वाला दैन्य भगवद्दर्शन का निरपेक्ष साधन है, निरपेक्ष इसलिये कि भक्त जो दीनता पूर्वक भक्ति=सेवा करता है, वहां तो उसे प्रभु के दर्शन की भी अपेक्षा नहीं है, उसे तो सिर्फ तत्सुख की ही भावना है, प्रभु भक्त की दीनता और निरपेक्षता से प्रसन्न हो कर उसे स्वानुभव कराते हैं,
परंतु स्वानुभव के पश्चात भक्त को प्रभु का जो वियोग होता है, उससे उत्पन्न होने वाली दीनता फल है, क्योंकि संयोग मान को जन्म देता है और वियोग दीनता को, और उस विरह जन्य दैन्य के कारण ही प्रभु कृपा करते हैं, इसीलिये विरह जन्य दीनता फल रूप है, ऐसे दीनता के दो प्रकार जिस मार्ग में हैं वह शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है ||१८||
समस्तविषयत्याग:सर्वभावेन यत्र हि ||
समर्पणं च देहादे:पुष्टिमार्ग:स कथ्यते ||१९||
जिस मार्ग में भक्त द्वारा समस्त विषयों का त्याग कर दिया जाता है, (विषय से यहां लौकिक विषय मतलब है ) अर्थात घर,परिवार,द्रव्य,धंधा इत्यादि सभी लौकिक विषयों से आसक्ति हटा कर सिर्फ प्रभु में ही उसे लगाया जाता है,और बाकि सभी कार्य सिर्फ कर्तव्य भावना से ही किये जाते हैं. ऐसा ही देह के विषय में भी है, कि देह का उपयोग सिर्फ प्रभु सेवार्थ ही किया जाता है, बाकि उसका उपयोग सिर्फ कर्तव्य भावना से ही किया जाता है. ऐसा समस्त विषयों और देह का जिस मार्ग में सर्वात्मना समर्पण सिर्फ प्रभु सेवार्थ ही कहा गया है, वह शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है.||१९||
विषयत्वेन तत्तयाग:स्वस्मिन् विषयता स्मृते: ||
यत्र वै सर्वभावेन पुष्टिमार्ग:स कथ्यते ||२०||
जिस मार्ग में भक्त द्वारा विषयों का विषय के रूप में त्याग किया जाता है, तथा उन्हें भगवदीय (वे भगवान के हैं ) के रूप में गृहीत किया जाता है, अर्थात विषयों में ममता न रखते हुए, वे प्रभु के ही हैं, इस रूप में उनका ग्रहण है. एवं जहां प्रभु के द्वारा भक्त का स्मरण किया जाता है, ( जब प्रभु भक्त का स्मरण करते हैं तब उसकी भक्ति=सेवा सफल होती है ). यह विलक्षणता जिस मार्ग में है,वह शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है ||२०||
एवंविधैर्विशेषेण प्रकारैस्तु सदाश्रितै: ||
हृदि कृत्वा निजाचार्यान पुष्टिमार्गो हि बुध्यताम् ||२१||
अब श्री हरिरायजी उपसंहार करते हैं कि, भगवदाश्रित जीवों को,जो विशेषतायें इस ग्रंथ में बताई गई हैं, उससे युक्त जो पुष्टिमार्ग है, उसे एवं श्री वल्लभ को सदैव हृदय में धारण करना चाहिये एवं उनका माहात्म्य समझना चाहिये. तभी उनके जीवन की सार्थकता है. ||२१|| || इति श्री पुष्टिमार्गलक्षणानि ||